यह मेरे जीवन प्रसंग के बारे में है। अभी मुझे नहीं मालूम यह कैसा रूप अख्तियार कर लेगा। बस अपने जीये

अनधिकार

लेखकों को बुलाने या नहीं बुलाने और बुलाने पर जाने या नहीं जाने की पीछे बहुत सारे तर्क हो सकते हैं, होते हैं। इन तर्कों का बहुलांश व्यक्तिगत होता है, थोड़ा-सा सांगठनिक भी। संगठन के निर्णय भी अधिकतर मामलों में सांगठनिक नहीं होता, बल्कि संगठन पर गैर-सांगठनिक तौर-तरीके से काबिज व्यक्ति या व्यक्तियों के छोटे गुट के ही निर्णय होता है। हमारे समय में, नकारात्मकता संगठित है और सकारात्मकता असंगठित है। इसलिए, यह मान लेना चाहिए कि लेखकों को बुलाने या नहीं बुलाने और बुलाने पर जाने या नहीं जाने आयोजकों और लेखकों का व्यक्तिगत और पारस्परिक मामला है। किसने किस को बुलाया और किसके यहाँ कौन गया नहीं गया इसके आधार बुलानेवाले और जानेवाले के प्रति हम अपनी रणनीतिक धारणा बना सकते हैं, अपना रवैया तय कर सकते हैं, सार्वजनिक रूप से लोगों को बता भी सकते हैं। लेकिन, अपनी रणनीतिक धारणा को नैतिक बनाने की कोई भी कोशिश हमें अंततः हास्यास्पद ही बनाती है। प्रेमचंद पर, निराला पर, यशपाल पर, मुक्तिबोध पर, नागार्जुन आदि पर बहुत सारे जनवादी प्रगतिशील कार्यक्रम होते रहते हैं। उनमें किस तरह से लोग बुलाये या नहीं बुलाये जाते हैं और किस तरह से जाते या नहीं जाते हैं, यह पूछना भी अनधिकार है! ऐसे माहौल में, कौन रायपुर गया, कौन इलाहाबाद, कौन भोपाल, या कौन दिल्ली गया इस पर खड़े किये जानेवाले सवाल का नैतिक पक्ष कम-से-कम मेरी समझ से तो बाहर है। बार-बार गलत तरीके से नैतिकता के सवाल को खड़ना अंततः नैतिकता को भी रणनीति में बदल देता है। नैतिकता का रणनीति में बदल जाना बहुत बड़ी क्षति होती है। जानेवाले को क्या मिलता है यह तो वही बता सकता है। नहीं जानेवाले को नीतिवान मान लेने का औचित्य तो समझ में नहीं आता!

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