यह मेरे जीवन प्रसंग के बारे में है। अभी मुझे नहीं मालूम यह कैसा रूप अख्तियार कर लेगा। बस अपने जीये

ग्लोबल डिमांड : लोकल सप्लाई

एक कार्यक्रम में केरल गया था। कार्यक्रम में मेरी दिलचस्पी और उपस्थिति का संदर्भ साहित्य था। आयोजकों की दिलचस्पी और आमंत्रण का संदर्भ साहित्य का विभागीय (विश्वविद्यालय) अध्ययन-अध्यापन था। आयोजनों के बाहर जो खाली जगह होती है, उस जगह पर खड़े होकर बहुत सारी बातें होती हैं। ऐसी ही खाली जगह पर खड़े-खड़े बात हो रही थी। हिंदी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े दक्षिण के विद्वानों का कहना था कि रेणु जिस तरह की तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं उससे उन्हें दिक्कत होती है। उन्हें साहित्य में लोकल हिंदी के प्रयोग से समस्या होती है। मैं ने सहानुभूति पूर्वक उनकी बात को समझने की कोशिश की। यह बात मेरे मन में चलती रही। रणनीतिक बात समझ में यह आई कि अपने प्रयोग के प्रसार के लिए हिंदी को लोकल से मुक्त होकर ग्लोबल होना होगा, लेकिन अपनी भाषिक-संवेदना की गहराई के लिए उसे ग्लोबल के किसी भी दबाव से मुक्त रहते हुए लोकल होना होगा। मेरे सामने चुनौती है कि अपने लेखन में ग्लोबल की माँग और लोकल की जरूरत को मैं कैसे साधूँ! यह बहुत मुश्किल काम साबित हुआ, खासकर संवाद में सिकुड़ते हुए टेक्स्ट की जगह और भाषा के विकसित होते इकहरे स्वरूप के दौर में। मैं ने लिखते समय कोशिश की है कि विचार प्रधान पाठ में ग्लोबल डिमांड और संवेदना प्रधान पाठ में लोकल सप्लाई की जरूरत का खास ख्याल रखूँ। अब कोशिश तो कोशिश है। हर बार कोशिश कामयाब ही हो जाये जरूरी नहीं। और मैं तो जीवन में अपनी कोशिशों में अधिकतर ना-काम ही रहा हूँ। लेकिन यह अपनी ना-कामियों का परचम लहराने के लिए नहीं उठा रहा हूँ। इस उम्मीद से उठा रहा हूँ कि शायद आपके किसी काम आ जाये और यह भी कि जब आप मेरे लिखे किसी पाठ में कहीं भाषा की गड़बड़ी से जूझें तो उसे मेरी भाषिक ना-कामियों के संदर्भ से समझें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें