बात लगभग तीस साल पुरानी है। अचानक याद आ गई। मैं उन दिनो कोलकाता के घोरबीबी लेन में रहा करता था। हमारे आसपास एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति भी रहा करता था। नाम! नाम तो नहीं मालूम, हाँ लोग सत्तो कहकर बुलाते थे ▬▬ सत्तो काका, सत्तो भैया या फिर कभी सतवा। यह नाम भी यों ही नहीं पड़ गया था। इसके पीछे भी एक कहानी है। हर-एक जीवन ही एक कहानी है। यह कहानी मैं ने बाद में जानी। कहानी यह कि सत्तो ओरिएंट पंखा के कारखाना में नहीं, पास के स्माल-स्केल कारखाना में काम करता था। काम की मजूरी कम थी, जिंदगी की मजबूरी बड़ी; सो शुरुआती दिनों में अधिक समय सिर्फ सत्तू पर ही काट लिया करता था। बंगाल में बिहारियों को प्रेम से छातूखोर (सत्तूखोर) कहा जाता है! आदमखोर, घुसखोर आदि के तर्ज पर छातूखोर! तर्ज की बात अपनी जगह लेकिन जहाँ तक तुलना की बात है, आदमखोर, घुसखोर आदि की तुलना में छातूखोर अच्छा है, न! तो लगातार सत्तू पर दिन कटने के कारण, वह कालांतर में सत्तो के नये नामालंकार से विभूषित हुआ।
सत्तो स्वभाव से चुपपा रहते हुए भी व्यवहार से हँसमुख था। इस बार गाँव से लोटने के बाद सत्तो एक उदास था। संगतियों ने बार-बार उदासी के इस गाढ़े रहस्य को भेदने की कोशिश की मगर विफल रहे। कुछ पता नहीं चला। अब जिम्मेवारी मेरी थी। फगुआ के बाद कोलकाता में गर्मी बढ़ जाती है। रात का समय। सत्तो बैठकर गमछा से हवा कर रहा था। उन दिनों नींद मेरी भी उचटी ही रहती थी। मैं ने आहिस्ते से उसके मन के साँकल को खोलने की कोशिश की। गरीब का मन! गरीब का मन किसी किला का भारी लौह कपाट तो होता नहीं सो, फट से खुल जाता है। बात यह थी कि पिछली बार पत्नी ने कोलकाता घूमने की बहुत जिद की थी। इतनी जिद क्यों इसका पता तो उसे इस बार चला। असल में, सत्तो की पत्नी के अड़ोस-पड़ोस की कई महिलाएँ कोलकाता से लौटकर बड़े चाव से कोलकाता की कहानियाँ सुनातीं ▬ कुछ सच्ची, अधिकतर झूठी! आप जानते हैं, कोलकाता महज एक शहर नहीं एक कहानी है, पूरबियों के मिजाज में। सो वह भी इस कहानी को देखना चाहती थी अपनी आँख से।
सत्तो के पास न आय न उपाय! अब करे तो क्या करे? एक बार गाँव जाने के बाद लौटना कर्ज मिलने पर ही संभव होता था। शहर आकर सत्तू पर जिंदगी काटना, कर्ज चुकाना और फिर गाँव जाने की तैयारी। यही तो था सत्तो का जीवन-चक्र! अब किसी तरह कोलकाता ले भी आये तो खुद रहने का ठौर नहीं, उसे रखे कहाँ? यह बहुत बड़ा सवाल था। उसने पत्नी को समझाया वहाँ रहने की बहुत दिक्कत है, वह जायेगी तो उसे रखेगा कहाँ? पत्नी ने भोलेपन से कहा वह वहाँ रहेगी नहीं, सुबह जायेगी और शाम को लौट आयेगी। सुबह जाने और शाम को लौट आने के पत्नी के प्रस्ताव में उसे एक राह सूझी। उसने इस प्रस्ताव को झट मान लिया। सुबह घर से निकल गया। दोपहर तक दरभंगा पहुँचा। अब क्या करे! एक रिक्शावाले से कहा सागर ले चलो। पत्नी के यह पूछने पर कि क्या गंगासागर, सत्तो ने हाँ में मूंडी हिलाई। रिक्शावाले ने पूछा क्या लक्ष्मी सागर तो उसे भी हाँ में मूंडी हिला दी। थोड़ी ही देर में रिक्शा लक्ष्मी सागर के किनारे था। सत्तो की पत्नी के नयन चकोर गंगासागर के दर्शन से अभिभूत। बार-बार प्रणाम की मुद्रा में वह भावविभोर। उसकी माँ की अंतिम इच्छा थी गंगासागर में स्नान, जो कभी पूरी नहीं हुई। पत्नी स्नान करने की जिद करने लगी तो सत्तो ने समझाया यहाँ सिर्फ सँकरात को नहाया जाता है। जो हो नहान नहीं हुआ तो क्या, आँखें तो तृप्त हुई। वह विभोर थी। अब सत्तो का काम आसान हो गया। एक बार कोई विभोर हो जाये तो उसे समझाना कितना आसान हो जाता है, न!
सत्तो ने थोड़ी ही देर में धरमतला, बड़ा बाजार सब घुमा दिया। अब मुश्किल थी हावड़ा ब्रीज की। पत्नी हावड़ा ब्रीज देखने पर अड़ गई। अब हावड़ा ब्रीज कहाँ से लाये। उसने पत्नी को कहा कि देखो हम कोलकाता में हैं। हावड़ा ब्रीज तो हावड़ा में है, जो यहाँ से दूर है और कोलकाता में नहीं हावड़ा में है। जो भी हो, घूमघाम कर लगभग संतुष्ट हुई सत्तो की पत्नी और साँझ तक गाँव वापस। दूसरे दिन सत्तो कोलकाता लौट आया था। इस बार जब गाँव गया था, तो पत्नी एकांत में बहुत विह्वल होकर बोली कि कोलकाता नहीं घुमा सकते थे तो नहीं ले जाते, लेकिन कोलकाता के नाम पर दरभंगा घुमाने का छल क्यों किया? अब सत्तो, ला जवाब। हुआ यह था कि एक दिन उसकी पत्नी अपनी मंडली में कोलकाता की कहानियाँ हाँकने लगी। एक महिला ने, जो वैसे भी उससे काफी जलती थी और झगड़ालू थी, बीच में ही रसभंग कर दिया। वह उससे उलझ पड़ी कि जीवन में कभी कोलकाता गई तो है नहीं, कहनी कहाँ से लाई! झोंटा-झोटौव्वल न हुआ, बाकी राँड़ी, बेटखौकी की कोई कसर न रही। शांत होने पर जब उसकी सबसे प्यारी सहेली ने उससे कोलकाता घूमने के रहस्य के बार में जानकर कहा कि सुबह जाकर शाम को कोलकाता से लौट आना संभव नहीं है, उसे दरभंगा घुमाकर ले आया होगा। उसे सहेली की बात पर यकीन हो गया। इस यकीन के कारण वह शर्म से दाहिने पैर के अंगूठे से खुदी जमीन में गड़ गई। उसे सबसे बड़ा दुख था कि अपनी सबसे प्यारी सहेली की नजर में झगड़ालू सही और वह गलत ठहर गई! पत्नी ने विह्वल होकर बार-बार पूछा कि उससे छल क्यों किया! इस छल से उसका मन फट गया है। पिछली बार पत्नी को विभोर छोड़कर आया था और इस बार विह्वल छोड़कर आया है, इसलिए सत्तो उदास और खामोश रहता है।
यह कहानी सुनते-सुनते लगभग भोर हो गई थी। हमारे बीच खामोशी की अदृश्य-सी मोटी दीवार खड़ी थी। मैं कहता तो क्या कहता? वह सुनता तो क्या सुनता? इस खामोशी को तोड़ा चटकल के भोंपू ने। भोंपू की आवाज के बंद होने के पहले ही सत्तो उठा और बिना कुछ कहे, गमछा झाड़कर चला गया। शाम को लौटने के बाद सब कुछ सामान्य ही था। अंतर यह था कि पहले गोल में सिर्फ सत्तो उदास और खामोश रहता था और अब मैं भी उदास और खामोश! गोल के लोगों से यह बात छिपी नहीं रही। अब गोल के लोगों ने सत्तो से कहा कि फूल बाबू काहे उदास रहते हैं, खामोश भी, जरा पता करो। सत्तो इतना प्रपंच नही जानता था उसने सीधे मुझ से पूछ दिया कि मैं आजकल इतना उदास और खामोश क्यों हूँ। मैंने उससे कहा कि एक बार छल करने के कारण तुम इतने उदास रहते हो। हम सभी हमेशा ही कोई न कोई छल करते रहते हैं, कभी अपने से, कभी अपनों से, कभी दुनिया से। इतना सुनकर हँस-हँसते सत्तो ने कहा कि यह छल युग है, फूल बाबू! छल करो और हँसो। छल युग में उदासी और खामोशी खतरनाक गुनाह है। छल करो और हँसो; छल भी करते जाओ और हँसते भी जाओ। इतना कहकर सत्तो फिर अपनी उदासी और खामोशी में डूब गया। डूबते-डूबते कह गया, मैं अनपढ़ गँवार मुझ से नहीं होता है, मगर तुम तो लिखे-पढ़े हो फूल बाबू! तुम क्यों उदासी और खामोशी में डूब जाते हो! उफ्फ मेरी उदासी भी अ-वैध, मेरी खामोशी भी अ-वैध! मैं अनपढ़ गँवार नहीं लिखा-पढ़ा हूँ!
एक साहित्यिक मित्र को वाकया सुनाया तो उन्होंने कहा कि कहानी बहुत मजेदार बन सकती है। बस सत्तो की वर्त्तनी ठीक कर उसे सत्ता कर लो और थोड़ा-बहुत विवरण और जड़ दो, कहानी बहुत मजेदार बन सकती है। मैंने उन से कहा कि आप क्या कह रहे हैं! क्या यही कि पाठकों से छल करूँ और हँसू; छल भी करूँ और मजेदार बन जाऊँ। वे भी उठकर चले गये। जाते-जाते कह गये, पता नहीं जीवन भर क्या लिखा-पढ़ा! सीधी-सी बात भी नहीं समझता। अब क्या कहूँ, क्या समझूँ! आप को बता दिया अब आप जानें! हाँ, कोई गलतफहमी न हो, इसमें थोड़ी-सी मिलावट भी है, मिलावट भाषा की!
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