उन दिनों कोलकाता में मैं बिल्कुल नया था। संयोग से यहाँ के हिंदी साहित्यकारों से मेरा संपर्क हो गया था। कोलकाता के हिंदी साहित्यकारों में आरंभिक उदारता तब कम नहीं थी। हाँ तो, हावड़ा के हनुमान पुस्तकालय में दिन भर का एक कार्यक्रम आयोजित था। कोलकाता के अन्य प्रतिष्ठित कवियों के साथ मैं भी कविता पाठ के लिए आमंत्रित था। हिंदी एक बड़े पदधारी कवि उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे, बिहार से आये थे. ताम-झाम बड़ा था। मैं ने जो कविता सुनाई वह उन्हें, अनुमानतः, पसंद आई। उन्होंने मेरे बारे में दिलचस्पी दिखाई, कुछ जानना चाहा। उनका ध्यान मेरे नाम से लगे ''कोलख्यान'' पर अटक गया था। अपने आस-पास उपलब्ध यहाँ के प्रतिष्ठित विद्वानों से इस ''कोलख्यान'' का अर्थ जानना चाहा, लेकिन किसी को मालूम हो, तब न उन्हें बताता! अंततः उन्होंने मुझ से ही पूछ लिया। उन से हुई बातचीत को पुनर्गठन की चेष्टा करता हूँ ▬▬▬
▬ आपकी कविता तो अच्छी थी।
▬ जी, शुक्रिया। थी नहीं है।
▬ हाँ, हाँ है। लेकिन यह बताइये कि इस ''कोलख्यान'' का क्या रहस्य है?
▬ रहस्य!
▬ रहस्य, यानी अर्थ!
▬ मैं ने सुना है कि आप हिंदी के बहुत बड़े विद्वानों में से एक हैं। अचंभित हूँ, आप यह नहीं जानते कि संज्ञा का वही अर्थ होता है जिस वस्तु या व्यक्ति को वह अभिहित करती है, इसके अलावा कोई अर्थ नहीं होता। ''कोलख्यान'' का अर्थ मैं हूँ इसके सिवा इसका कोई अर्थ नहीं है।
मेरी इस उदंडता के कारण बात वहीं रुक गई। आज सोचता हूँ कि संज्ञा का अर्थ अपनी जगह, सार्थकता तो यही होकर रह गई है कि वह व्यक्ति का नहीं बल्कि, व्यक्ति के धर्म, जाति, कुल, खानदान, पीकदान, रौशनदान आदि का खुलासा अपरिचित के सामने कर दे। यह सब, अर्थात धर्म, जाति, कुल, खानदान, पीकदान, रौशनदान आदि का ज्ञान साफ-साफ न हो, तो अपनापन विकसित नहीं होता! अपनापन ही न हो तो फिर आप कोई हों, बला से! अपनापन हो तो, अपराधी पर भी गर्व करने में हिचक नहीं होती है। अपनापन न हो तो कवि पर भी कोई नजर नहीं रखता। आज सोचता हूँ, कितनी गहरी बात उस विद्वान ने मुझ से जानना चाहा था! अपने ज्ञान की अज्ञानता के कारण इसे तब मैं बिल्कुल समझ ही नहीं पाया।
छिः छिः! धर्म, जाति, कुल, खानदान, पीकदान, रौशनदान आदि से ही अपनापन विकसित होता है तो ऐसे अपनापन पर छिः।
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