यह मेरे जीवन प्रसंग के बारे में है। अभी मुझे नहीं मालूम यह कैसा रूप अख्तियार कर लेगा। बस अपने जीये

ऐसी क्या कमी है

उन दिनों सोविय संघ बिखराव या पुनर्रचाव के दौर में था। एक निष्कलुष गाँधीवादी ने निजी बातचीत में आतुर होकर कहा कि मार्क्सवाद में ऐसी क्या कमी रही कि इतनी जल्दी बिखराव का दौर शुरू हो गया, पता करना चाहिए। मैं ने उनकी आतुरता का सम्मान करते हुए कहा था कि हाँ पता यह भी करना चाहिए कि गाँधीवाद में ऐसी क्या कमी है कि उके आधार पर कोई राजनीतिक ढांचा या नागरिक स्थापत्य विकसित ही नहीं हो पाया। सिलसिला यहीं रुक गया। वक्त नहीं रुका। आज इस सवाल से जूझ रहा हूँ कि दावे अपनी जगह, लेकिन ऐसी क्या कमी है कि जनतंत्रात्मकता हमारे मूल्यबोध का सक्रिय हिस्सा कभी बन ही नहीं पायी।

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